गुरुवार, 4 अगस्त 2011

जीवन में संकल्पों का महत्व



            मानव के अर्न्तप्रदेश में, मानसरोवर में, तैरती हुई इच्छाओं को साकार करने का, उन सूक्ष्म भाव तरंगों को मूर्त स्वरूप प्रदान करने का (Abstract idea) को Concrete form देने का प्रबल विचार संकल्प की आमिधा से आख्यायित होता है। परम विराट् पुरुष ब्रह्य ने "एकोऽहं बहुस्याम् "की इच्छा को अभिव्यक्ति प्रदान करने का संकल्प किया तो परिणाम-स्वरूप इस सृष्टि का प्रणयन हुआ, उसका विस्तार प्रस्तार,विकास और उन्मीलन हुआ। बिना संकल्पों के आदर्श यथार्थ नहीं बन सकते। हृदय-उदधि में तरंगति होने वाली भावोर्मियाँ, नाना परिकल्पनाएँ अभिलाषाएँ-आकांक्षाएँ और स्वप्निल उमंगें पानी के बुलबुलों की भाँति उठती और विलीन हो गई होती, यदि संकल्प-बद्ध होकर मानव ने उन्हें अमली जामा पिन्हाया होता। जो भी मनसा और वाचा है, संकल्पों का प्रसाद पाकर ही वहकर्मणा" में रूपायित हो पाता है।
            संसार की रचना ईश्वर के संकल्प की कृति है तथा संसार का प्रलय भी उसी के विनाश-संकल्प की लीला है। जब उसने प्राणि जगत में असत और अधर्म का अतिरेक देखा, तो संकल्प किया यहाँ अवतरित होने का। रामावतार और कृष्णावतार इसी संकल्प-शक्ति के परिणाम हैं।रामचरितमानस" और भगवद्गीता" की प्रसिद्ध उक्तियाँ इस कथन की पुष्टि करती हैं-
जब जब होय धरम की हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा
हरहिं कृपा निधि सज्जन-पीरा।
तथा
यदायदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
            इस संकल्प-यज्ञ के होताओं में मिथिला नरेश विदेहाराज जनक का नाम सहज ही जिह्नाग्र पर थिरकने लगता है जिन्होंने बेटी सीता के विवाह हेतु धनुष-यज्ञ का आयोजन प्रण-यज्ञ के रूप में किया था। उनका संकल्प था कि जो राज-वीर, शिव-धनुष का भंजन करेगा उसी के साथ सीता का पाणि-ग्रहण होगा। तबसे निरन्तर चल रही उस आराध्य दम्पत्ति-सीता राम की युगपद् आराधना कदाचित् संभव हो पाती यदि इसके पार्श्व में महाराज जनक का शुचि संकल्प होता| इसी प्रकार शिव-पार्वती के युगपदरूप की आराधना हम कैसे कर पाते यदि स्वयं पार्वती जी नेवरहुँ शम्भु तु रहहुँ कुँवारी' का पुनीत व्रत-संकल्प किया होता ? और उस संकल्प की पूर्ति हेतु उन्होंने ऐसा अभीद्ध तप न किया होता जो नारी समाज के लिए शाश्वत आदर्श बन गया। वैदिक आर्य-धर्म का सारा वाङ्यमय संकल्पों की गौरव-गाथा से भरा पड़ा है।
            इसी तरह हजरत इब्राहिम, हजरत ईसा और मूसा हजरत मोहम्मद, हजरत इमाम हुसैन आदि आदि तारीख की ऐसी अजीमुल मर्तबत शख्सियतें हैं। मानव इतिहास के ऐसे आलोक-स्तम्भ हैं जिन्होंने अपने अपने युग की आसुरी शक्तियों के प्रभुत्व को नष्ट करने का संकल्प किया। फलस्वरूप दानवता का संहार और मानवता की प्रतिष्ठा उन उन कालों में हुई। रावणत्व का संहार और रामत्व का विजय-घोष हर देश-काल में परिस्थिति-जन्य संकल्पघोष का ही प्रतिफलन रहा है। यद्यपि प्रकट रूप में आसुरी शक्तियों का ही वर्चस्व दिखता है, उन्हीं की संख्या भी प्रचुर होती है। बातिल के बढते बोल-बाल के आगे हक बौना दिखाई देता है। अधर्म की शत-सहस्र भुजाओं के सामने धर्म की मात्र दो भुजाएँ नितान्त बचकानी दिखती हैं ; परन्तु धन्य है, स्तुत्य है उन दो भुजाओं में प्रवहमान अतुलित संकल्प-बल का उष्ण रुधिर जिसके एक एक कतरे में वह भास्वर दीप्ति है जो जुल्मत के ओफक पर नूरे ईमान की सुबहे रौशन की ज़ामिन है, जिसके एक-एक कतरे में सत्य-निष्ठा का वह तूफान है जो बातिल को तमामतर तागूती व जबरूती ताकतों समेत गर्काब कर देने की सलाहियत रखता है। तभी तो वह धर्म प्रतिज्ञ, कृत संकल्प छोटी-छोटी दो भुजाओं वाला बालक राम इतनी बड़ी उद्घोषणा कर सकता था-
निसिचरहीन करहुँ महि, भुज उठाइ प्रन कीन्ह।"
और इस महान  प्रण का, महान् संकल्प का परिणाम यह हुआ कि मानव समाज संसार मेंरामराज" की प्रतिष्ठा देख सका। जब हज़रत इब्राहीम नमरूद जैसे साहिबे सतवतों जबरूत के मुकाबले आकर खड़े हुए तो कौन कह सकता था कि कल्दानिया का एक बेसरो-समान नौजवान अपने जमाने के इतने बड़े जाबिर से बाजी जीत जाएगा। लेकिन कुफ्रो जलालत की घनघोर घटा में हजरत इब्राहिम ने तौहीद की वह संकल्प-शमा जलाई जिसकी रौशनी में ज़ुल्मत का अंधेरा चाक-चाक हो गया।
            इसी तरह, काबिले दीद हैं इमामे हुसैन का वह संकल्प जिसने सकल भ्रष्टाचार के पूंजीभूत शासक, यजीद के सामने बैअत करनें की ठानी थी। यजीद एशिया का उस वक्त सबसे बड़ा हुक्मराँ था, सबसे बड़ी हुकूमत, बेशुमार दौलत और माद्दी ताकत का मालिक था, लेकिन इसलाम को पामाल करने पर आमादा था। इधर, हुसैन के पास दौलत, कसरते अफराद और फौजियों की बेशुमार तादाद। अगर कुछ था तो वह थी संकल्प की शक्ति, सब्र की ताकत, इरादों की बुलंदी जिसके तहत उन्होंने सर कटाकर अपना सर्वस्व बलिदान कर यजीदियत के खिरमन को खाकस्तर कर दिया।उन्होंने सर कटाना तो पसंद किया,परन्तु दुष्ट सम्राट के हाथ में हाथ देना पसंद नहीं किया-
सर दाद ,न दाद दस्त दर दस्ते यज़ीद
हक्कां कि बेनाए लाइला अस्त हुसैन ||
            याद रखिये, मैदाने जंग में सैनिकों की तादात जंग फतह नहीं करती। बल्कि अगर जंग सर होती है तो सैनिकों के दिलों में धड़कते हुए अजीम संकल्पों से होंती है, अज्मों इरादों के तूफानों से होती है, सच्चे, जज्बात की दृढ़ता से होती है। बकौल शायर-
अज्म है कला कशां, कसरते अफराद नहीं,
दिल गिने जाते हैं-मैदान में तादाद नहीं।
महा संग्राम में विजय सर्वदा हौसलों की होती है, इरादों के उत्साह की होती है, संकल्पों की उत्ताल उमंगों की होती है। चाहे महाभारत का महासमर हो या राम-रावण का महासंग्राम अथवा हुसैनियत और यजीदियत की भयानक जंग। शायर ने क्या खूब कहाः-
हौसले थे जवानाने हुसैनी के फक़त
वर्ना लाखों से बहत्तर की लड़ाई कैसी ?
            तारीख गवाह है कि हुसैन के मात्र 72 सिपाहियों के असीमित दृढ़ संकल्प-बल ने यजीद के लाखों लाखों लाख लश्कर पर सर बलंद किया था। उसी प्रकार जैसे- ‘रावण रथी विरथ रघुवीरा" राम की मामूली सी हास्यास्पद बानरी सेना ने लंकाधिपति राक्षसराज रावण का मानमर्दन कर डाला था।
            इतिहास साक्षी है कि महान कार्य और ऐतिहासिक उपलब्धियाँ राणा प्रतापी संकल्पों से हासिल की जाती हैं-जो मैं हरिहू अस्य गहावें-जैसे भीष्म संकल्पों से हासिल की जाती है। चाहे वह सत्य के, धर्म की अस्मिता के मंदिर-निर्माण का भीष्म संकल्प हो अथवा अधार्मिंक कंसों के ध्वंस का।
            सिकन्दर महान की विश्व-विजय की कांक्षा एक स्वप्न बनकर ही रह जाती यदि उसमें संकल्प की आग होती।
            विस्मार्क जर्मनी का लौह पुरुष कहलाता यदि उसमें Iron determinations  अर्थात लौह संकल्पों की ऊष्मा दहकती होती। इंगलैण्ड का महानतम लेखक बेकन (Bacon) जिसे अंग्रेजी के गद्य-साहित्य का जनक कहा जाता है अपने युग के सर्वोच्च पद पर सिंहासनारूढ़ इसीलिए हो का क्योंकि उसमें संकल्प किया था येन-केन-प्रकारेण एजिलाबीथ युग के सर्वोत्कृष्ट पद पर आसीन होने का। शेक्सपियर के अति प्रसिद्ध नायक-चरित्र मैकबेथ जो अपनी महत्वकांक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध है, की स्काटलैण्ड का राजा बनने की अदम्य अकांक्षा अंतर्द्वन्द्व के कुहासे में ढकी मुंदी कोरी अकांक्षा ही बनी रह जाती यदि लेडी मैकबेथ ने उसमें संकल्प का अग्निस्वर फूँका होता।
            इतिहासीय संकल्पों के इसी चक्रानुक्रम में मील का पत्थर बन कर सामने आता है पराधीन भारत को परतंत्रता की कठोर कारा से मुक्त करने का अभूतपूर्व संकल्प। विस्तार से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान जो राष्ट्रनायक महापुरुष हँसते-हँसते अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हैं उन्हें किसी भौतिक उपलब्धि की आकांक्षा नहीं थी और ही उनके पास विध्वंसक शस्त्रों का अम्बार था-अगर कुछ था तो गाँधी का अहिंसक, सुभाष का अटल अमो संकल्प भर था, पटेल की लौह संकल्प-दृढ़ता थी, आजाद की अदम्य संकल्प शक्ति थी। कहाँ तक गिनाऊँ कैसे गिनाऊँ संकल्पों की वह गौरव-गाथा जिसे गाते-गाते इन संकल्पवीरों ने इन सत्य प्रतिज्ञों ने इतने विशाल, विश्व बलिष्ठ ब्रिटिश सम्राज्य की चूलें हिला दीं और Quit India Movement का अटूट संकल्प लेकर अंग्रजों को हिन्दुस्तान की सरज़मीन से सदा सदा के लिए खदेड़ दिया। उसी की खुशी का इजहार तो कुछ दिन बाद आप हम सबस्वतंत्रता दिवसके रूप में करने जा रहे हैं।
            अच्छा होगा यदि इस स्वतंत्रता दिवस को हम संकल्प दिवस के लिए रूप में मनाएँ। यह व्रत लें , संकल्प लें कि जो भी बाहरी और भीतरी हमारी इस बेशकीमती आजादी के खतरे उत्पन्न होंगे उन्हें हम सरसब्ज़ नहीं होने देंगे। क्योंकि डर लग रहा है। जिस फिरदौसे रूएज़मी को हमारे पूर्वजों ने अपने वेश कीमती खून से सींचा है, वो वक्त की तूफानी हवाओं को नज्र होकर कहीं खिजां की शक्ल अख्तियार कर लें। और अगर ऐसा हुआ तो इसके जिम्मेदार हम खुद ठहराए जाएँगे कि हमने आजादी के रहनुमाओं की ज़ी कुर्बानियों की कद्र नहीं की। सम्प्रदायवाद, जातिवाद का जहर जिस तरह हमारी रगों में घो-घो कर दौड़ाया जा रहा है, मूल्यों पर जिस तरह हल्ला बोला जा रहा है और सत्याग्रहियों के संकल्पों को कमजोर करने की जिस तरह पुरज़ो साजिश रची जा रही है हक की आवाज का जिस तरह गला घोंटा जा रहा है, यह आर्यावर्त बृहत्तर भारत की अखण्डता को खण्ड-खण्ड करने के लिए काफी है। न्याय और इंसाफ का जिस तरह कचूम निकाला जा रहा है हमें बर्बाद करने के लिए काफी है |
            आइये हम सब संकल्प लें कि इस चमन की रंगीन क्यारियों को बरबाद नहीं होने देंगे अन्यथा बुलबलें यहाँ से उड़कर चली जाएँगी और घसियारे तथा चिड़ीमार इसके मालिक बन जाएँगे। और तुम, तुम अपनी तबाही के खामोश तमाशाई बने टुकुर-टुकुर ताकते नजर आओगे। याद रखना होगा कि संकल्पों की कोई उम्र नहीं होती। यह कदापि नहीं कि यौवन ही संकल्पों का धनी होता है। बालक हो या बुजुर्ग, अबला हो या वृद्ध, हर नर-नारी के अग्निगर्भ व्यक्तित्व में संकल्पों की चिनगारी दहकती-धधकती है। अवस्था से कोई जवान या बूढ़ा नहीं होता। जवानी होती है, तो बस इरादों की |बेचैनी होती तो संकल्पों की, खून लाल होता है तो बस आँखों का जिनमें इरादों की सुर्खी रौशन रहती है।मिर्ज़ा गालिब ने शायद इसीलिये कहा था:-
रगों में दौड़ते फिरने के हम हीं काय
जो आँखों ही से टपका, तो फिर लहू क्या है||
            तो आइए आने वाले इस स्वतंत्रता दिवस को संकल्पों की ऊष्मा से नहला दें, व्रत की पवित्रता से सुधा-स्ना कर डालें, इरादों की चमक से रौशन कर दें उसी शायर की आवाज में आवाज मिलाते हुए यह आवाज बुलंद करें।
माँ, मेरे इरादों की जवानी अलमाँ
दिल जवाँ, हिम्मत जवाँ, फितरत जवाँ रखता हूँ मैं||