अभी तक हिन्दी के 90 प्रतिशत पाठक उर्दू गजल को महज़ हुस्नोइश्क और गुलोबुलबुल की शायरी समझते आए हैं, उसे संकीर्ण महफिली और दरबारी संस्कृति का उपस्थापक मानते आए हैं। सिर्फ हिन्दी के कमजर्फ पाठक ही इस वंचना के दुर्ग में कैद रहे हों, यही नहीं उर्दू अदब के जाने माने, नामी गिरामी हज़रात भी इस विधा को लांछित करने से नहीं चूके। बहुत पहले मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली ने बर्बर पद्यरूप कहकर गजल की अवमानना की |
हाली ने कहा था
“मौकूफ कर अंदाज़ गज़लख्वानी का
ढूंढकर इस बहर में अब कोई यकता गौहर।"
डा. इयादत बरेलवी और जनाब जी०ए०अंसारी ने तो गजल को निहाखाने की बूढ़ी खाला कहकर बदनाम किया। और तो और इस युग के रईसुलमुतगज्ज़लीन शायर खुद जिगर साहब ने कभी खीज कर कहा था-‘शायर नहीं हैं वो,जो गजलख्वाँ है आजकल।’ लेकिन दानिशवर अदीब बखूबी जानते है कि वक्ते आखीर तक वे ही उसे अपनी अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम बनाए रहे। गजलख्वानी उनके फन की फितरत थी और वह बराबर बनी रही। उस्ताद ‘‘जौक ” साहब ने मिर्जा गालिब की गजल रचना पर तंज करते हुए टिप्पणी की थी- “जौक यारों ने बहुत ज़ोर गज़ल पर मारा।"
इतना ही क्यों उर्दू काव्य के भवभूति यानी मिर्जा गालिब को, जिन्हे अपने अंदाजे बया पर फख्रो मुबाहात थी, गजलगोई को अभिव्यक्ति का सशक्त मध्यम मानने से इन्कार था- ‘कुछ और चहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए ’ परतु हकीकत ये है कि जर्फेतंगनाए गज़ल फरमा कर भी गालिब जैसे महान लेखक उसी माध्यम के उपजीवी रहे, भले ही मीर का अंदाज़ उन्हे कभी न मिला।
इन तमाम विसंगतियों के बावजूद इस काव्यरूप ने अपनी लम्बी यात्रा में अरबी कसीदे से लगाकर फारसी बहरों से होते हुए हिन्दुस्तान में बड़ी व्यापक जागीर बना ली है। जनाब खां उन्नावी ने-
"बुलबुलो गुल ही पे ये मौकूफ नहीं शाने गजल
पूछिये हाफिजो शीराज से इमकाने गजल।"
लिखकर सचमुच ही वुसअते दामाने गजल में इजाफा किया है वास्तविकता यह है कि गजल पर आयी बीच के दौर की धुँध छट गई है। फैज़ , मजाज, साहिर और फिराक जैसे कवियों ने उर्दू शायरी को किसी भी भाषा के तरक्की पसंद युग साहित्य के हम पल्ले ला बिठाया है। आज का उर्दू कवि युग का और जनता की आवाज का प्रतिनिधि है। डा. बशीर बद्र नयी गजल के नए दौर के सूत्रधार है। राही मासूम रजा समेत अंतर प्रान्तीय ख्याति के उर्दू गजल लेखक तो नागरी लिपि अपनाने की अपील भी बार-बार करते रहे हैं , क्यूंकि इससे गजल हमारे देश से हमारी जमीन से जुड़ेगी। भूलना नही चाहिए कि ज़मीं पे रहके ज़मा आसमां से मिलता है। शायद इसीलिए इसरत मोहानी ने लखनवी उर्दू को फारसी की अतिशयता से बचाया। उसे आमफहम बनाने में बड़ी मदद की। खुद मीर साहब को यह धुन थी कि हिन्दी,उर्दू को फारसी के असर से बचायेगे। उसी जमाने के शायर की यह सूक्ति भी कबिल-ए-गौर है –
“बोलनी आ गई जिसे उर्दू”
सामने उसके फारसी क्या है?
जिसे हम बनावटी ढंग की आज उर्दू बना रहे हैं वह अपने सहज रूप में हिन्दी ही मानी जाती थी।
हाँ, तो गजल अब महफ़िल और दरबारों के सीमित दायरे से बहुत बाहर व्यापक जीवन संवेदनओं की अभिव्यक्ति का प्रधान माध्यम बन चुकी है। उसमें भाषा और कल्पना के अंदाज़ के नए आयाम निर्मित होने लगे हैं। आज के बौद्धिक युग की अपरिहार्य तीव्र सम्पुटित प्रतीकवत्ता सबसे ज्यादा गज़ल में ही प्रकट हो रही है और यही कारण है कि गजल उर्दू ही नहीं भारत की सभी भाषाओं हिन्दी गुजराती पंजाबी कश्मीरी इत्यादि में बड़ी गति प्राप्त कर रही है और उसमें नए युग के यत्र-तत्र युगीन प्रभाव भी निखार प्राप्त कर रहे हैं। नए युग की गज़ल समग्रता की कविता है। वक्त से खबरदार रहकर यथार्थ अंकन के विविध पक्ष बड़ी सच्चाई के साथ गज़ल में ढाले जा रहे हैं। गालिब के शब्दों में 'यह शमा हर रंग में जल रही है। यकीनन आज गज़ल इंसानी ज़िंदगी की धड़कन का प्रतीक बन गई है। आम आदमी के भीतर मचे कोहराम को गजल ने बहुत क़रीब से देखा है और उसकी गवाही दे रही है।
मनुष्यता के विरूद्ध चल रहे षड़यत्रों के विरोध में पूरी मुस्तैदी से खडी समकालीन गज़ल के तेवर को पूरी सजगता व सजीवता से कागज पर उतार देने वाला एक कोहनामश्क शायर सरज़मीने फैजाबाद की कोष से भी निकला जिसका एक अक्षर आपबीती और जगबीती का मुँह बोलता हुआ चित्रपट है, जो अपने सीने में एक दहकती हुई आग लिए फिरता है और उसी आग की चमक में जो भी देख लेता है उसे चमका देता है जिसकी शख्सियत असरारो रूमूज़ का खज़ीना है, जिसकी शायरी से वो शोआंए फूटती है जो जुल्मत के ओफक पर नूरे ईमान की सुबहेरोशन की ज़ामिन है, फैजाबाद के अदमी बज्म का जो पीरेमुगाँ है और जिसका नाम है राम कृष्ण पाण्डेय ‘‘आमिल"। आमिल एक ऐसा आलिम है जिसके आलिमाना तर्ज़े जिन्दगी पर मुस्तकबिल की नस्लें आमिल रहे तो क्या खूब !
"दावते नजर" और "अक्से गजल" के बाद उनके ताजा गज़ल संकलन "ज़िक्रे दौरा" पर तायराना नजर डालने के बाद मैं आमिल को उन कादिरूल कलाम शायरों की कतार में बैठा देने की हिमाकत तो नहीं कर सकता जिन्हे उर्दू अदब का इमाम तसब्बुर किया जाता है। लेकिन हाँ, शेर के बंधे छंद में नपे तुले शब्दों में कभी कभी 'आमिल' वह बात और वह चमत्कार पैदा कर देने की सलाहियत रखते है कि सुनने वाले सकते में आ जायें | उनकी शायरी में कहीं मीर की दर्दीली पैनी धार है कहीं मोमिन की सादा बयानी का चमत्कार, कहीं जौक की सुघराई तो कहीं गालिब की दार्शनिक गहराई। चकबस्त, जोश और सागर ने दशा के तरुणो को जो अंतः प्रेरणा दी है, उसे समवेत रूप से आमिल के 'ज़िक्रे दौरां' में पाया जा सकता है। अहसान बिन दानिश की तरह आमिल शोषितो के लिए जीते हैं, उन्हीं के लिए सोचते हैं और उन्हीं की व्यथाओं को अशआर में चित्रित करते हैं। दौरे हाजिर में फिराक के कलाम को कदरे अव्वल का जो मर्तवा दिया गया, उसकी सबसे बड़ी वजह थी अल्फाज के इन्तखाब और तर्ज़े अदा के साथ ही ख्याल की पाकीज़गी। फिराक ने उर्दू गज़ल में हिन्दी शब्दों का जो खूबसूरत इज्तमा किया है वह अपने आप में एक मिसाल है। फिराक़ की ही भाति आमिल ने भी शायरी में हिन्दी उर्दू की गंगा जमुनी धारा बहाकर जो मजंर निगारी की है उसके फरहत बख्श झोकें दिलो दमाग को तो ताज़ातरीन करते ही है हमें देश की संस्कृति से भी जोड़ते हैं।
मुझे प्रस्तुत संकलन में मानीखेज़ लफ़्ज़ों, अलामतों, अर्थगौरव तथा प्रतीकों में बँटी गहराई का एहसास हुआ है। उनमें सामान्य से कही अधिक अर्थ गरिमा प्राप्त होती है। शब्दों की अंतर्वर्तिनी तरंगें भी इसमें पर्त-दर पर्त उर्जस्वित होती हैं |शब्द संक्षिप्त होकर भी बड़ी दूर तक अपनी उर्जा का प्रसार करता है अपने पूर्ण विस्तृत परिवेश का कम्प्यूटर बनकर वह गजल के लिए वरदान स्वरूप हो गया है | गजल का सबसे बड़ा गुण संक्षिप्तत्व है भी|
शायर के हदय से सीधे निकले हुए शब्द पाठक के दिलों को सीधे स्पर्श करते हैं। तभी तो आमिल की सादगी और सपाटबयानी में एक अज़ब सेहर बयानी व इल्मबीनी के दर्शन होते हैं। अंगेजी आलोचक ड्राइडन ने कहा है लोहा गर्म करते और गलाते समय उसकी अग्निवर्ण लामिमा पर पालिश नहीं होती। रचना के मूल संवेग और उसकी आकर्षक शैली के परवर्ती परिष्कार के अलग अवसर होते हैं। इसकी पहचान मुझ नाचीज़ को गहराई से है। कठोर बंधनों की जकड़ रचना-क्षणो में मै कदापि सहन नही करता। अज्ञेय तक ने कहा 'लंबे सर्जना के क्षण कभी भी हो ही नहीं सकते|' मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारो में घुला मिला रचा-बसा कवि आमिल-सांस की संरगम पे जिदंगी की गजल गाता सुनाई देता है इसीलीए अक्सर ओ वेश्तर उसकी जवान से बेसाख्ता ऐसे कतात अदा हो जाते हैं जो सूक्तियों की भांति उद्धरणीय है चदं अशआर गौरतलब हैं -
तंग नजरी के कुहासे का धुंधलका है बहुत
उगते सूरज की मगर आस बबनाए रखना।
X X X X X X
बेवफा होते हुए भी बावफा हो जाएगा
पूजते रहने से पत्थर देवता हो जाएगा,
X X X X X X
आंखो से अश्क आना मुहब्बत का है सुबूत
शोलों से छू के बर्फ पिघलती जरूर है।,
X X X X X X
हम्दनात और मुनाजात गज़ल होती है।
दौरे हाज़िर की हरेक बात गज़ल होती है।,
X X X X X X
भूख अफलास से तपते हुए पैकर के लिए
भूख सर करने की हर बात गज़ल होती है।
आमिल का रचनाकार लोक जीवन के गहरे महासागर से अपनी संस्कार रश्मियों द्वारा जीवन-रस का आकर्षण करता है। सामाजिक वैषम्यजन्यकटुता की गहरी अनुभूति कवि के अंतःकरण को इस कदर आलोड़ित करती है कि राम कृष्ण पाण्डेय के भीतर का कलाकार उद्वेलित हो उठता है और तब वे उद्वेलन व उमड़ते संवेग वाणी पाने को छटपटा उठते हैं। सर्जना के उन दिव्य क्षणो में जिन्हे अंग्रेज कवि मैथ्यू अर्नोल्ड हैवन सेंट मोमेण्टस् (Heaven sent moments) कहता है, आमिल भारी भरकम शब्दों के डम्बराच्छद में नही उलझता ,अल्फाज की जादूगरी या कलाबाजी में सिर नही धूनता प्रत्युत सीधे सादे शब्दो में भावतिरक को उड़ेल देता है।
संग्रह के अशआर से दो चार होने पर लगता है कि आमिल ने जिदगी का मुशाहदा बहुत करीब से किया है। बेशक उनके वसीअ मुतअल्ला ने शायरी को जहाँ एक ओर बलागतो फ़साहत से भर दिया है वहीं कई बार शायर का नासहाना(उपदेशात्मक) अंदाज़ देखकर महसूस होने लगता है, उसकी गजलगोई पर एक प्राध्यपक सवार हो गया है। याद रखना होगा कि आमिल मूलतः पेशे से एक आला दर्जे के प्रधानाध्यापक रहे है। इस अध्यापकत्व ने शायर को खुद्दारी की उस बुलंदी पर फाएज कर दिया है जहाँ वह मीर से रूबरू होता नजर आता है। मयखाने में तरबतर दामन लिए मीर को बैठा देखकर शेख जी एक बार तंजिया लहजे में हैरत जदा हुए तो मीर ने फरमाया-
तर दामनी पे शेख हमारी न जाइए
दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वजू करें ।
खुदयकीनी व खुद्दारी की उसी ठसक, उसी खुसरवाना अंदाज में आमिल यह कहते सुनाई देते है-
किस तरह हम गमे जाना में जिया करते है।
रश्क मुझ पर तो फरिश्ते भी किया करते है।