शनिवार, 14 मई 2011

इदम् लोकाय

सृष्टि के उद्भव काल से ही नर-नारी के हृदयान्तराल में उमंगित होने वाली भावोर्मियों का तरंगायन साहित्य की विविध विधाओं - कविता ,कहानी ,नाटक -उपन्यास ,निबंध में अपने-अपने ढंग से होने लगा | प्रत्येक देश-काल-जलवायु का मानव अपनी-अपनी संस्कृति ,आचरण की सभ्यता ,जीवन-शैली,उच्चावच परिस्थितियों ,मर्यादा-मूल्यों ,अच्छाईयों-बुराइयों,विषमताओं-विसंगतियों,धार्मिक-मर्यादा,राजनीतिक व सामाजिक विकृतियों,रीतियों-खूबियों का चित्रण अपनी-अपनी वाणी और भाषा में करता रहा| परन्तु ,स्मर्तव्य है कि वाणी और कोई नहीं साक्षात् सरस्वती ही है तथा समस्त भाषाएँ उसी एक सरस्वती की अनेक छवियाँ हैं |मनुष्य किसी भी द्वीप-देश का हो उसके ह्रदय के मूल संवेग-भावोद्वेग ,एक जैसे ही हैं |घृणा-प्रेम ,ईर्ष्या-द्वेष ,व्यथा-कथा ,पीड़ा-संवेदना ,करुण-आल्हाद के मूल उत्स एक जैसे मानव में उद्भूत होते हैं चाहे वह अमेरिका हो या इंग्लैण्ड का हो ,या भारत-अफ्रीका का हो |इन सबकी एक जाति है एक ही सम्प्रदाय है |आँसुओं की न कोई अलग भाषा है ,ना हँसने की कोई अलग राष्ट्रीयता |
          फिर भी न जाने क्यों ,भिन्न-भिन्न भाषाओं ,साहित्यों एवं संस्कृतियों में तरह-तरह की विसंगतियाँ-विषमताएँ मानव मन को उत्क्लिन्न किया करती हैं |यह देख मेरा मन नितान्त अवसादग्रस्त रहा करता है |मुझे तो पाश्चात्य अंग्रेजी-साहित्य महारथियों एवं पौर्वात्य संस्कृतहिन्दी-उर्दू साहित्य के ‌‍‌द्युतिधर कविर्मनीषीयों व चिन्तकों के रचना-वैविध्य में साम्य एवं सामरस्य की छवियाँ ही दीखती हैं|मिल्टन,शेक्सपीयर,शेली,जॉन्सन,टी.एस.इलियट,आदि के साहित्योद्गारों में वही बिम्ब-वर्णन-छटाएँ दृग्गोचर होती हैं जो कालिदास,तुलसी,प्रसाद,अज्ञेय आदि के चिंतन-वर्णन में |इसी प्रकार सांस्कृतिक धरातल पर इस्लामिक व भारतीय संस्कृति के सरोकार भी तो एक जैसे ही हैं|फिर भी,आए दिन कभी कभी भाषा को लेकर तो कभी मज़हब को लेकर विवादों-संघर्षों के तूफ़ान उठा करते हैं|इस प्रकार की सामजिक संस्कृति वैषम्य-जन्य कटुता की गहरी अनुभूति मेरे अंत:करण को आलोड़ित करती रहती है|लगता है कि यदि इसी प्रकार भाषाई ,जातीय व साम्प्रदायिक विद्रूपता के दंगल चलते रहेंगे तो,बकौल शायर
जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब,न तुलसीदास होगा |
          आज की भ्रष्ट स्थिति में जो प्रकाश देने के लिए हैं,वही भ्रांतियाँ फैला रहे हैं –‘धुन्ध की गीता शिकायत कैसी ?-दिन दिवाकर ने बेच खाया है|
         काश ! राजनीति का दृष्टिहीन नेतृत्व –‘हांकना बंद करे देश को अंधे महावत की तरह |
          सियासी जगत में विषमता के फ़साद तो एक हद तक बर्दाश्त किये भी जा सकते हैं परन्तु ,भाषा-साहित्य जगत में खेंमेबाज़ी नाक़ाबिले बर्दाश्त है|यहाँ तो समरसता के रंग ही छविवंत होते हैं| ये भाषा के झगड़े शब्द-शक्ति के नासमझ लोग बढ़ा रहे हैं |वर्ना ,
शब्द फिर से सही अर्थ देने लगें
यदि बदल जाएँ ये भ्रष्ट वैयाकरण |
          मुझे डर है कि इस नापाकतर दौरे सियासी में- बिगड़ जाये न खुद मेरा मिज़ाजे शेरोफन साकी|
    लय एक सार्वभौम तत्व है |अतएव वांछनीय है विभिन्न साहित्यों की तद्रूपता के साथ-साथ विश्व-समाज के जातीय-साम्प्रदायिक व धार्मिक वैविध्य में भी एक लयात्मक समरसता के रंग खिल उठें बस इसी भावना के साथ- जगन्नाथ त्रिपाठी 

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