मंगलवार, 14 जून 2011

ऐ झूठे जग के प्रेम जाल


ऐ झूठे जग के प्रेम जाल।
नवमास उदर का वह निवास, जीवन का वह लघुतम विकास
इस घोर कठिन कारागृह में, होता लघु प्राणों का प्रकाश
फिर काल चक्र को साथ लिए, देखा मैनें निज जन्म काल।।
माता का वह मधुरिम दुलार, निज पिता भ्रातृ का सुखद प्यार
मेरे शैशव के ललित चित्र, क्या खींच सकेगा चित्रकार
मेरी क्रीड़ा को देख-देख, हो जाते थे सहृदय निहाल।।
मैं किलक-किलक कर खेला था, जो पाया मुख में मेला था
जब थाह मिली घुटने टेके, माया का कठिन झमेला था
उसमें ही फँसकर शिथिल अंग, होते देखा यह जग विशाल।।
यौवन का फिर उन्माद लिये, दारासुत प्रेम-प्रमाद लिये
मिथ्या मस्ती में झूम रहा, अन्तर में विषम विषाद लिये
दो दिन भी रह न सका उन्नत, नत हुआ हमारा भव्य भाल।।
ऊँचे-ऊँचे वे भव्य भवन, सुमनाच्छादित सुन्दर उपवन
कोमल किसलय पादप प्रसून, लतिकाओं में मधुकर गुंजन
सब स्वप्र हो गये जीवन के, मुरझाई देखी डाल-डाल।।
लग गई जरा की चिनगारी, है सूख चली यौवन क्यारी
क्षण में विलुप्त हो गई सकल, वह मधुरिम माया संसारी
जिस तन फूले फिरते थे उस तन का कैसा हुआ हाल।।
बस छूट गई अन्तिम आशा, मिल गई समीरण से श्वासा
यह देह चिता में जल-जलकर, कहती कुछ सांकेतिकभाषा
है क्षणभंगुर यह विश्व सकल, आता सबका है अन्तकाल।

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