गुरुवार, 19 मई 2011

एक विवादास्पद प्रश्न ‘क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है?’




पता नहीं कितने वर्षों से मैं आदमी की तलाश में भटक रहा हूँ ,लेकिन अभी तक मिला नहीं , और न यही निश्चित है-इस जन्म में वह मिलेगा भी कि नहीं |आप इसे पढ़कर न तो चौंकिये ,न इसे व्यंग्य या मज़ाक मानिये |
आदमी की तलाश में मैं कहाँ-कहाँ गया ,इसे बताने की अपेक्षा यह कहना अधिक सुविधाजनक होगा कि मैं कहाँ नहीं गया अर्थात सब जगह छान मारी |आदमी मिलना तो दूर , परछाई भी नहीं मिली |
इस छान-बीन के दौरान जो मिले वे आदमी न होकर कुछ और थे, मसलन अध्यापक और छात्र ,डाक्टर और मरीज़ , बिड़ला और भिखारी , मालिक और मज़दूर ,दुकानदार और खरीददार ,जज और अपराधी, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पूँजीपति, किसान, बुनकर, कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, जनता, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, भारतीय, पाकिस्तानी, अमेरिकन, रूसी-चीनी, काले-गोरे,ज्ञानी-अज्ञानी, सदाचारी-व्यभिचारी, नेता-मतदाता, एम.एल.ए., एम.पी., मंत्री, राष्ट्रपति, पति-पत्नी , भाई-बहन, माता-पिता, शत्रु-मित्र, गुरु-चेला |
उस पर तुर्रा यह है कि आदमी के सन्दर्भ में सबसे बड़ी गर्वोक्ति की गयी है कि आदमी सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है| आदमी की सर्वश्रेष्ठता के समक्ष इतने प्रश्न-चिन्ह लगे हुए हैं कि गिनना असम्भव है | प्रश्न है कि क्या आदमी को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाय , जबकि उसने श्रेष्ठता का कोई भी एक काम नहीं किया है?
वह आदमी सबसे बड़ा अहंकारी था , जिसने सबसे पहले कहा –‘ आदमी सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है| यह कथन हमें मात्र इसलिये प्रिय लगता है कि हम भी आदमी हैं अन्यथा तथ्य इसके एकदम विपरीत हैं| अगर कोई अध्यापक कहे मैं इस कॉलेज सर्वश्रेष्ठ अध्यापक हूँ अथवा कोई विद्यार्थी कहे मैं  कॉलेज का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी हूँ तो ऐसे अध्यापक और विद्यार्थी के प्रति आपकी कैसी धारणा होगी? इसी प्रकार यदि हम अपने देश ,धर्म , जाति को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दें तो क्या यह सच होगा ?
इस सृष्टि में जिसमें हम रह रहे हैं, केवल आदमी ही तो नहीं रहते | अनेक पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा अन्य अशरीर धारी रहते हैं |आदमी ने अपनी सर्वश्रेष्ठता का दावा स्वयं ही किया है|यह तो अप्रत्यक्ष रूप से आत्म प्रशंसा है| क्या आदमी को दूसरे जीव-जन्तुओं ने भी श्रेष्ठ कहा है ? क्या हाथी, घोड़े, शेर, पेड़-पौधों से भी इस सन्दर्भ में राय ली गयी है? हमारी सर्वश्रेष्ठ आदमी के अतिरिक्त क्या अन्य जीवों ने भी इसे मान्यता दी है ? सम्भव है कि हाथी भी अपने को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ जीव समझता हो| केवल आदमी द्वारा आदमी को सर्वश्रेष्ठ कहना अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना है |
सृष्टि के आरम्भ से आज तक आदमी ने एक भी ऐसा कर्म-कार्य नहीं किया है, जिससे दूसरे किसी जीव का थोड़ा सा भी लाभ हुआ हो | आदमी ने दूसरे जीव-जन्तुओं का विनाश किया-शिकार द्वारा | अनेकों को पालतू बनाया अपने स्वार्थ के लिये | हमारी सारी उन्नति और सभ्यता हमारे स्वार्थों की पूर्ति के लिये ही तो है | जितने भी वैज्ञानिक अथवा अन्य आविष्कार हुए हैं वे किसके लिये हैं-आदमी के लिये ही तो ! आदमी ने अन्य जीवों पर शासन किया ,उन्हें गुलाम बनाया | आदमी की शासक प्रवृत्ति ने फिर दूसरे आदमियों पर शासन किया| देशों को पराजित किया , युद्ध हुए |दो-दो विश्व-युद्ध लड़े गये , तीसरे की तैयारी है | करोड़ों आदमी मारे गये| यही सर्वश्रेष्ठता का लक्षण है ? आदमी नामक जीव द्वारा जीव-जन्तुओं का भला करना तो दूर रहा, स्वयं आदमी का भला नहीं कर सका.... नहीं कर सकता है|
थोडा कटुसत्य तो होगा, लेकिन आजकल प्रत्यक्ष ही चारों ओर मूर्खता का कूट राज्य है| आदमी अपने अंदर धन की कमी,अधिकार की कमी, शस्त्रास्त्र की कमी को तो बिना किसी प्रयास के ही जान जाता है लेकिन दुनिया के इस छोर से लेकर दूसरे छोर तक चिराग लेकर ढूँढने पर भी एक आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने अंदर समझ की कमी अनुभव करता हो| सारी धरती विसंगतियों से भर गयी है| आदमी पीड़ा और सन्ताप से इतना भर गया है कि जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, इससे बेहतर तो मृत्यु ही है|विश्व के तमाम विचारशील लोगों ने आत्महत्या की है| क्या वे नासमझ थे, जिन्होंने अपने आप को समाप्त किया?
दूसरी ओर दुनिया में ऐसे लोग भी हुए,जिन्होंने आत्महत्या न कर, आत्म-साधना का विकल्प चुना,जैसे महावीर, बुद्ध और ईसा | कुछ ऐसे विचारक भी हुये जिन्होंने आत्महत्या तो नहीं की किन्तु दूसरों ने उनकी ह्त्या कर दी ,जैसे गाँधी मन्सूर | क्या आज के आदमी के समक्ष दो ही विकल्प रह गये हैं आत्महत्या या साधना का |
कुछ बीच की श्रेणी के लोग हैं, जिन्होंने कोई विकल्प ही नहीं चुना, वे व्यर्थ के बोझ से त्रस्त, जीवन अनुभव से रहित करीब-करीब मृत हैं| हम जो जो कुछ कर रहे हैं, क्या यही जीवन है? या इसके अतिरिक्त भी कुछ और है| अगर है तो वह क्या है? जब तक इसका पता न चल जाए कि वास्तविक जीवन क्या है, तब तक हम कैसे अपने को जीवित कह सकते हैं| आदमी के अंदर कुछ ऐसा भी है, जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती |
यूनानी दार्शनिक सुकरात चिलचिलाती दोपहरी में लालटेन लेकर आदमी से भरी सड़कों पर किस आदमी की तलाश कर रहा था, कभी सोचा है आपने? वह आदमी आपके अन्दर भी है| अगर कभी आपका उससे सामना हुआ तो वह आपके जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि होगी|  

रविवार, 15 मई 2011

शङ्खनाद ‘स्वान्तः तमः शान्तये’ का – काव्य-लोक तुलसी और मिल्टन का






भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ |
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम ||





what in me is dark, Illumine,
What is low, raise and support;
That to the height of this great argument,
I may assert eternal Providence,
And justify the ways of  God to man.-Milton Paradise Lost’
             होमर और दान्ते के पश्चात सम्पूर्ण पाश्चात्य यूरोपियन काव्य-संसार के महान कवि मिल्टन के उदात्त महाकाव्य पैराडाइज़ लास्टकी उपर्युक्त प्रारम्भिक पंक्तियाँ कृतिकार की रचनाधर्मिता का उज्ज्वल द्योतन करती हैं |संत कवि तुलसीदास की भाँति मिल्टन प्रबल प्यूरिटन कवि (Puritan Poet) था |अतः जीवन के सम्पूर्ण कृतित्व को आराध्य राम के चरणों में अर्पित कर,उनके जीवन-चरित का यशोगान कर तुलसी जिस प्रकार पायउ परम विश्राम की अनुभूति करते हैं ,मिल्टन भी अपने कृतित्व का प्रयोजन ,अपने कवि-कर्म की सार्थकता ईश्वरत्व की शाश्वतता के प्रतिपादन में समझता है|परम विराट की विभूतिमत्ता का गौरवगान करना ही कवि के जीवन का चरम ध्येय है|ईश्वर के न्यायौचित्य का निरूपण ही उसके काव्य का प्रमुख प्रयोजन है जिसका आध्यात्मिक उदघोष कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में किया है| To justify the ways of  God to man.’ही कवि के महाकाव्य का प्रतिपाद्य विषय है|जिस तरह एलिज़ाबीथन युग के गीतकार कवि स्पेन्सर ने फेयरीक्वीन की रचना का मुख्य  प्रयोजन –‘To fashion a gentleman with virtuous discipline’कहकर उदघोषित किया था , मानववादी प्यूरिटन कवि मिल्टन भी काव्य-देवी से जीवन-निशीथ के तमसावृत गह्वरों को आलोकित करने की प्रार्थना करता है ,इस भूतल पर देवत्व का अमित विस्तार चाहता है , पृथ्वी को स्वर्गदपि गरीयसी बना देने की गहरी आकांक्षा रखता है;राजतंत्र में व्याप्त कदाचार के कालुष्य-कर्दम को ,पापाचार के पृथुल पंक को स्वच्छ कर यत्र-तत्र-सर्वत्र जनतंत्र की क्रियात्मक ऊष्मा का संचार करना चाहता है | जॉन ड्रिंकवाटर के शब्दों में ‘To scourge tyranny and to exalt the underlying heroism of man.’ मिल्टन की उत्कट अभिलाषा थी |अध्यात्म का उदात्तीकरण मिल्टन की सतत काव्य साधना का अपरिमेय श्रेय-प्रेय है | पैराडाइज़ लास्ट की उपर्युक्त पंक्तियों में ही नहीं अन्यान्य काव्य-कृतियों में भी वह इन आध्यात्मिक उद्गारों को बारम्बार अभिव्यक्त करता है | सैमसन एगोनिस्टिस में कवि अंधे ,भग्नाश ,विपन्न ,विपद्ग्रस्त ,सैमसन को निम्नलिखित शब्दों में आश्वस्त करता है
Just are the ways of God
And justifiable to men
                   इसी प्रकार ‘On  his Blindness’ शीर्षक कविता में वेदना-वेष्टित अन्धे मिल्टन की अंतर्ध्वनि नैराश्य-तमिस्त्र से आच्छन्न कवि की म्रियमाण शिराओं में नवीन जिजीविषा स्फूर्त कर देती है और कवि की ईश्वर तथा ईश्वर की न्याय-भावना में अविचल आस्था का उन्मेष भी:-
But Patience
To Prevent that murmur soon replies;
God doth not need either man’s work
Or his own gifts, who best bear his
Mild yoke, they serve Him best.
कोमस ’(Comus) मिल्टन की प्रथम नीतिपरक अध्यात्मवादी रचना है जो सदाचार की अभ्यर्थना तथा कदाचार की भर्त्सना करती है |यूँ तो शिल्प-संरचना की दृष्टि से कविता उल्लास-भावना से आप्लावित है ,परन्तु कृति की अभ्यन्तरीण आत्मा मिल्टानिक गम्भीर्य  (Miltonic High Seriousness) से रंजित है |कविता की मुख्य विषय-वस्तु निम्नांकित पंक्तियों में व्यंजित है :-
Mortal that would follow me
Love virture,she alone is free
She can teach ye how to chime
Higher than the spheary clime
Or if virtue feeble were
Heaven itself would stoop to her :
लिसीडास ’(Lycidas) शीर्षक रचना में मिल्टन का अन्तःकरण धर्मक्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से आलोड़ित हों उठता है |रोमन कैथोलिक चर्च में श्वेतवस्त्रधारी पुजारियों को धर्म की आड़ में विविध कुकृत्यों और कुचक्रों में लिप्त देखकर उसका अंतर्मन विक्षोभ से भर जाता है |वैसे तो लिसीडास एक पैस्टोरल शोक-गीत (Elegy)है ,परन्तु कविता के भीतर घोर आक्रोश भरे शब्दों में सेंटपीटर की गरज़ती हुई प्रताड़ना मिल्टन के धार्मिक उत्साह की अतिशयता और सदाचार-प्रियता का तुमुलनाद करती है|
मिल्टन का नाम साहित्य जगत में भाव-भव्यता (Sublimity)महाकाव्यात्मक उदात्तता (Epic grandeur), शैली-गाम्भीर्य(Grand style), होमरिक औपम्य-विधान (Homeric Similes)का पर्याय माना जाता है |मैथ्यू अर्नोल्ड को अंगरेजी काव्य में यदि कहीं प्रभूत और प्रकृष्ट रूप में बहिरंतर उच्चता और गहनता (High seriousness) के समवेत दर्शन हुए हैं,तो सिर्फ़ मिल्टन के काव्य-लोक में |उसका काव्य उस समय के रिनासाँ (Renaissance) -सांस्कृतिक और कलात्मक आंदोलन एवं रिफार्मेशन (Reformation) भक्तिआंदोलन के पुष्कल प्रभाव का मणि-काँचन संयोग है |अनुदात्त और अवर ,अश्लील और अभद्र ,अनगढ़ और भदेस ,विनोद और विलास की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है |वर्ड्सवर्थ ने ठीक कहा था:-
“Thy soul was like a star, and dwelt apart
Thou hadst a voice whose sound was like the sea.
Pure as the naked heavens, majestic, free ……….”
भारत-ह्रदय, भारती-कंठ, भक्त चूड़ामणि गोस्वामी के भी सम्पूर्ण कृतित्व में आत्मचरित के ब्याज से समाज-चरित का निरूपण और परिष्कार हुआ है| विनय-पत्रिका में कवि ने भौतिक ऐश्वर्य में लिप्त मानव की करुण मानसिक दशा का मार्मिक उदघाटन किया है |स्वार्थ में डूबी हुई मानवता सांसारिक वैभव-विलास में पड़कर कितनी भयंकर मानसिक अशान्ति का शिकार हो उठती है ,इस तथ्य का विश्लेषण तुलसी ने स्व को माध्यम बनाकर किया है| इस प्रकार तुलसी पीड़ित मानवता के प्रतिनिध कवि हैं, किसी शासक सम्राट का वैभव-गान करने वाले चारण नहीं | जिस तरह मिल्टन ने राजतंत्र का भरपूर विरोध कर जनतंत्र-स्थापन का नारा बुलंद किया, तुलसी भी राजाओं का प्रशस्ति गान करने वाले कवियों के प्रति उग्र दिखाई पड़ते हैं |उनकी धारणा है
कीन्हें प्राकृत जन गुण गाना |
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना||
वह समझते थे कि ये सांसारिक सम्राट जनता का हनन करने वाले हैं, जीवनी-शक्ति प्रदान करने वाले नहीं | पराक्रम मारने में नहीं ,जिलाने में है | अतः एक ही राम पर पूर्ण प्रतीति कर शरणागत होते हैं |विनय पत्रिका की पूरी भावना निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है-
छोरिबो को महाराज, बाँधिबो को कोटि भट
पाहि, प्रभु पाहि, तिहुं पाप-ताप दह्यो हौं |
रीझि-बूझि सबकी, प्रतीति-प्रीति एही द्वार
दूध को जरयो पियत फूँकि- फूँकि मह्यो हौं ||
तुलसी अपने युग के नास्तिकों में भक्ति और विनय, श्रद्धा और विश्वास पैदा करना चाहते थे जिनके अभाव में अन्तस्थ ईश्वर के अपने राम के दर्शन नहीं हो सकते और जब तक अपने राम के दर्शन नहीं होते अर्थात आत्मसाक्षात्कार नहीं होगा, परम शान्ति की प्राप्ति असम्भव है|तभी तो महाकाव्यकार ने मानस के आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया
भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ |
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम ||
मिल्टन के होमरिक औपम्य-विधान के सदृश तुलसी ने मानस के बालकाण्ड में अपने मानस का मानस के साथ ,तथा उत्तरकाण्ड में ज्ञान और भक्ति की विवेचना करते समय जिस वृहत सांगरूपक की निबंधना की है,वह उनकी विकसित अध्यात्म-शक्ति का अभिव्यंजक तो है ही, कवि की ताक्ष्ऽर्याधिष्ठत प्रतिभा, अभिव्यक्ति की चमत्कृति और द्युतिंधर कल्पना शक्ति का परिचायक भी |गोस्वामी जी की इस कलाधारा में डूबने पर हमारी वाणी ही नहीं, दृष्टि भी निर्मल हों जाती है,अभ्यंतर में एक नवीन चेतना का विस्फार हो जाता है,निर्मल मन शुद्ध-बुद्ध-मुक्त अवस्था में परम विश्राम पाता है |
अपने राम(God) के लिये डैगॉन के लिये कदापि नहीं अपने देश के लिये ,अपने जाति-धर्म के लिये सर्वस्व बलिदान कर देने में यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी-मिल्टन के सैमसन को (जो मिल्टन का ही प्रतिनिधि रूप है) परम शान्ति की अनुभूति होती है | रामचरितमानस के अंत में जिस प्रकार तुलसी रघुनाथ-गाथा का समापन करके परम विश्राम लाभ करते हैं , सैमसन एगोनिस्टिस के अंत में मिल्टन भी उसी प्रकार “calm of mind , all passion spent ” का अलौकिक वैभव प्राप्त करता है |तुलसी जानते थे कि यवन-शासन से प्रपीड़ित जनता के लिये रघुनाथ के चरणों में प्रीति करने के अतिरिक्त और कोई उपचार नहीं है |इसीलिए लोक-भाषा में रामायण का प्रणयन कर उन्होंने जनता के लिये निर्वाण का द्वार खोल दिया |जिसका पीयूष-पान कर मानवता के दग्ध ह्रदय का निखिल ताप शांत हो जाता है| मानवता के मंगलविधायन, सर्व-भूत के आत्यन्तिक कल्याण, विश्व-उन्मीलन और विश्व-सिसृक्षा में ही इन कवियों को आत्मतोष प्राप्त होता है|एक प्यूरिटन का, संत का इससे बड़ा अन्तःसुख और हों ही क्या सकता है? तभी तो मिल्टन की भाँति तुलसी भी रामचरितमानस के मंगलाचरण में अपने प्रतिपाद्य विषय का,कवि-कर्म का निर्भ्रान्त उद् घोष करते हैं:-
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि |
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषा निबन्धमति मन्जुलमातनोति ||
तुलसी का रामचरितमानस यदि हिंदू संस्कृति की गीता है, तो मिल्टन का पैराडाइज लॉस्ट ईसाईयों की बाइबिल |दोनों का ही प्रभाव समय के साथ अक्षयवट की शाखाओं की भाँति भारत और इंग्लैण्ड में ही नहीं ,प्रत्युत सम्पूर्ण विश्व में छा गया|ये दोनों ही सिद्ध कृतियाँ जिनकी रचना कर दोनों ही महाकवियों को अभीष्ट सिद्धि परम विश्राम :Calm of Mind-प्राप्त हुयी |ये साहित्य प्रेमियों के आदर्श ग्रन्थ हैं जिनमे रसिक जनों के लिये काव्य के रस का अक्षय स्रोत है |ये साधकों के साधना-ग्रन्थ हैं,और सबसे बढ़कर ये लोक-व्यवहार के विश्व-कोष हैं|जिस प्रकार रामचरितमानस ने जनमानस में दुर्गा के रूप में प्रकट होकर तत्कालीन यवन-शासन रूपी महिषासुर का मान मर्दन किया और सामाजिक वैषम्य जन्य कटुता तथा धर्म-क्षेत्र में में प्रचलित शैव और वैष्णव संप्रदायों की हठवादिता-रूपी आसुरी शक्तियों का,जो शुम्भ और निशुम्भ के रूप में विकराल हो गयीं थी ,विनाश किया,उसी प्रकार पैराडाइज लॉस्ट् की आध्यात्मिक शक्ति ने किंग चार्ल्स द्वितीय द्वारा लाये गये रेस्टोरेशन रूपी विलासोन्माद उच्छृंखल दैत्य का हनन किया तथा समाज में व्याप्त अनैतिकता और वासनातुरता की सड़ांध को स्वच्छ कर धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना की|जॉन ड्रिंकवाटर के शब्दों में
“To read Paradise Lost or Samson Agonistes, without haste and without questions, is to look upon the troubled world with untroubled eyes”
दोनों ही महाकवियों का सम्पूर्ण जीवन विषम परिस्थितियों के भयंकर वात्याचक्र से निकलकर समरसता की वाटिका में प्रफुल्ल सुमन के रूप में प्रकट हुआ | यह इनकी अनुपम साधना का दिग्दर्शक है| किवंदन्ती प्रसिद्ध है और गोस्वामी जी की कृतियों के अन्तःसाक्ष्य से भी सिद्ध है कि उन्हें जन्म लेते ही माता-पिता की दुलारमयी गोद से पृथक होना पड़ा|माता-पिता के पूर्ण साहचर्य एवं सुखद संसर्ग से वंचित होकर निरीह कीट की भाँति एक शिशु इस भवाटवी में भटकने लगा |आश्रय के अभाव में दरिद्रता ने चार चनों के लिये भी आठ-आठ आँसू रुलाये | परमुखापेक्षिता और दीनता जीवन के स्वाभाविक विकास में बड़ी भारी बाधा उत्पन्न करती हैं ,पर साथ ही उसे कर्मठ बनने की प्रेरणा भी देती हैं| गोस्वामी जी का जीवन इन दोनों तत्वों का उदाहरण प्रस्तुत करता है | दीनता ने उनके जीवन में प्रभु के प्रति विनय-भाव का उद्-घाटन किया,तो कर्मण्यता ने उनकी लेखनी से अनुपम कृतियों का सृजन कराया |तुलसी का व्यक्तिगत जीवन जटिल परिस्थितियों से संकुल तो था ही ,उनके समय में सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन भी विदेशी शक्ति द्वारा पदाक्रांत हो चुका था |प्रायः सभी हिन्दू राजाओं ने अपने जातीय गौरव को तिलांजलि देकर यवन-शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी |अब ये राजा धर्म के रक्षक न रह गये थे- उन्हें विधर्मियों की नीति-संचालन का माध्यम बनना पड़ता था|अब वे तपस्वियों के और आश्रम के संरक्षक न रहकर बादशाहों के दरबारों की शोभा बढ़ाने वाले होकर रह गये थे | उनकी आज्ञाकारिणी संताने बादशाहों के हरम की शोभा बढ़ाने को विवश की जाती थीं |रक्षक वर्ग की यह स्थिति होने पर रक्षित वर्ग सब ओर से अरक्षित हो गया |ब्राम्हणों-विद्वानों को विजातीय संस्कृति की महत्ता का मद पिलाकर उनकी शास्त्रीय चेतना को मूर्छित कर दिया गया |विद्वान कलमबहादुर मनसबदार(मुन्शी) बनने लगे |देववाणी संस्कृत के स्थान पर फ़ारसी राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी |तुलसीदास ने अपने समय के महिषासुर की शक्ति को परखा उन्होंने भारतीय वाङ् मय के व्यापक अध्ययन का सुदृढ़ आधार लेकर अपने मानस को उरेहा और अपने समय की पददलित ,पराधीन आर्यजाति को इसी आर्य-संस्कृति के निर्देशक,शक्ति ,शील और सौंदर्य के पुंजीभूत स्वरुप  राम का सन्देश देने के लिये मानस की रचना की |वह आर्य जाति को राम भक्त बनाना चाहते थे |यदि तुलसी का मानस आर्य संस्कृति का शेवधि है तो रामचरितमानस तुलसी के ह्रदय का | इतनी महती आदर्श राशि हिन्दी का कोई एनी कवि नहीं दे सका है |ऐसा लगता है कि समस्त संस्कृत वाङ्मय,समस्त आर्य-संस्कृति एकत्र होकर तुलसी के मानस से रामचरितमानसके रूप में प्रवाहित हो रही है |
भाग्य से अभिशप्त,समय से संतप्त मिल्टन का जीवन भी संघर्षों की करुण गाथा है |जिन आदर्शों के लिये कवि जी रहा था, उन्हें अपनी आँखों के सामने ढहते हुए देखने को विवश होना पड़ा |क्रामवेल की मृत्यु के साथ ही उसकी कल्पना का सुन्दर महल ढह चला |नाचती हुई नीहार-कणिकाओं पर तीखी किरणों के भाले चुभने लगे |जिस किसी शाखा पर कवि हाथ धरने को हुआ , वह शाखा वहीं से टूट जाती रही| गणतंत्र का महल खंडहर हो चला |कवि के उद्दात्त सिद्धांत , उसके सारे अरमान फफोलों की भाँति फूट चले |प्यूरिटन शासन का अंत हो चला|प्युरिटानिक उपदेशों का खुले आम उपहास होने लगा |संतों की समाधियों को भूमि-सात् कर दिया गया |रेस्टोरेशन के आगमन ने कवि के भाव-जगत को गहरा आघात पहुंचाया|परिवार ,पत्नियों और पुत्रियों के दुर्व्यवहार ने उसके जीवन को और भी जर्जर बना दिया|निरंतर आर्थिक हानि से जीवन दुर्वह हो गया| कुछ दिनों के लिये तो उसका जीवन खतरे में पड़ गया|नेत्र-ज्योति धीरे-धीरे क्षीण होती गयी-यहाँ तक कि आगे चलकर कवि पूर्णरूपेण अंधा हो गया|इन भीषण दुर्दान्त परिस्थितियों में कवि ने उन उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की जो इंग्लैण्ड की राष्ट्रीय संपत्ति ही नहीं ,अखिल विश्व की साहित्यिक सम्पदा बन गये |मानों ये सारी विपत्तियाँ कवि के लिये वरदान बनकर आयीं थी|यह निर्विवाद सत्य है कि पैराडाइज लॉस्ट की प्रभविष्णुता का उद् गम  कवि का वेदना-वेष्ठित ह्रदय-स्थल ही है|उसने अपनी पीड़ा विश्व-पीड़ा में समरस कर दी है| जॉन ड्रिंकवाटर का यह कथन नितांत युक्तियुक्त है :-
“But unlike those other thousands, Milton was a great poet, and as such, he both transcended for ever the conditions of the moment and lifted his personal passion into universal poise by the sublime certainty with which it was embodied. Poise - that is the last word when all critical analysis of Milton has been made.
इस पर्सनल पैशन को यूनिवर्सल प्वाइज में साधारणीकृत कर देना अवर कोटि के कवियों के वश की बात नहीं |तुलसी और मिल्टन उन वन्दनीय संतों में हैं जो बहुजन हित में आत्महित और परान्तः सुख में ही स्वान्तः सुख समझते थे|उनकी दृष्टि में काव्य-कृति वह पवित्र-कारिणी ,नैर्मल्य-विधायिनी मंदाकिनी है जो व्यक्ति के , समष्टि के, लोक के अन्तस् में व्याप्त कल्मष-कर्दम को बहाकर लोकोत्तर आनंद का प्रसार करती हैं |तुलसी की धारणा है
कीरति भनिति भूति भल साई |
सुरसरि सम सब कर हित होई ||
तुलसी के काव्य का नायक गो द्विज धेनु देव हितकारी तथा मंगल भवन अमंगल हारी है | असत् के उन्मूलन और सत् के प्रतिष्ठापन में उसे सच्ची सुखानुभूति होती है|कवि की मंगल-विधायिनी कल्पना भयानक अरण्यों और असुरों की लंका में जुझारू संघर्ष करती हुई अंत में विजयोल्लास मनाती है और उत्तरकाण्ड में सम्पूर्ण मानस रोगों ,झंझाओं और ज्वालाओं का पर्यवसान चिदनंदसंदोह में होता है स्वान्तः तमः शान्तये
राम कथा गिरिजा मैं बरनी |
कलिमल समनि मनोमल हरनी ||
-x-x-x-x-x-x
यह सुभ संभु उमा संवादा |
सुख संपादन समन विसादा ||
मिल्टन की कला भी शेक्सपियर की ट्रैजेडी की भाँति अवसादान्त न होकर तुलसी की आनन्दवादिनी कला की भाँति प्रसादान्त है | समस्त परिपन्थियों के परिमर्दनोपरांत नायक का प्राणोत्सर्ग हो जाने पर भी सैमसन एगोनिस्टिस का पर्यवसान मिल्टन ने प्रसादमयी आनंद-भावना से किया है - स्वान्तः तमः शान्तये|
ग्रन्थ के अंत में कवि तुलसी की भाँति परमविश्राम,की लोकोत्तरानन्दमयी अनुभूति करता है जो भाव-वैभव तथा कला-वैदग्ध्य -दोनों की दृष्टि से अनुपमेय है: -
“Nothing is here for tears, nothing to wail
Or knock the breast, no weakness, no contempt
Dispraise or blame, nothing but well and fair
                 And what may quiet us in a death so noble…..”

शनिवार, 14 मई 2011

इदम् लोकाय

सृष्टि के उद्भव काल से ही नर-नारी के हृदयान्तराल में उमंगित होने वाली भावोर्मियों का तरंगायन साहित्य की विविध विधाओं - कविता ,कहानी ,नाटक -उपन्यास ,निबंध में अपने-अपने ढंग से होने लगा | प्रत्येक देश-काल-जलवायु का मानव अपनी-अपनी संस्कृति ,आचरण की सभ्यता ,जीवन-शैली,उच्चावच परिस्थितियों ,मर्यादा-मूल्यों ,अच्छाईयों-बुराइयों,विषमताओं-विसंगतियों,धार्मिक-मर्यादा,राजनीतिक व सामाजिक विकृतियों,रीतियों-खूबियों का चित्रण अपनी-अपनी वाणी और भाषा में करता रहा| परन्तु ,स्मर्तव्य है कि वाणी और कोई नहीं साक्षात् सरस्वती ही है तथा समस्त भाषाएँ उसी एक सरस्वती की अनेक छवियाँ हैं |मनुष्य किसी भी द्वीप-देश का हो उसके ह्रदय के मूल संवेग-भावोद्वेग ,एक जैसे ही हैं |घृणा-प्रेम ,ईर्ष्या-द्वेष ,व्यथा-कथा ,पीड़ा-संवेदना ,करुण-आल्हाद के मूल उत्स एक जैसे मानव में उद्भूत होते हैं चाहे वह अमेरिका हो या इंग्लैण्ड का हो ,या भारत-अफ्रीका का हो |इन सबकी एक जाति है एक ही सम्प्रदाय है |आँसुओं की न कोई अलग भाषा है ,ना हँसने की कोई अलग राष्ट्रीयता |
          फिर भी न जाने क्यों ,भिन्न-भिन्न भाषाओं ,साहित्यों एवं संस्कृतियों में तरह-तरह की विसंगतियाँ-विषमताएँ मानव मन को उत्क्लिन्न किया करती हैं |यह देख मेरा मन नितान्त अवसादग्रस्त रहा करता है |मुझे तो पाश्चात्य अंग्रेजी-साहित्य महारथियों एवं पौर्वात्य संस्कृतहिन्दी-उर्दू साहित्य के ‌‍‌द्युतिधर कविर्मनीषीयों व चिन्तकों के रचना-वैविध्य में साम्य एवं सामरस्य की छवियाँ ही दीखती हैं|मिल्टन,शेक्सपीयर,शेली,जॉन्सन,टी.एस.इलियट,आदि के साहित्योद्गारों में वही बिम्ब-वर्णन-छटाएँ दृग्गोचर होती हैं जो कालिदास,तुलसी,प्रसाद,अज्ञेय आदि के चिंतन-वर्णन में |इसी प्रकार सांस्कृतिक धरातल पर इस्लामिक व भारतीय संस्कृति के सरोकार भी तो एक जैसे ही हैं|फिर भी,आए दिन कभी कभी भाषा को लेकर तो कभी मज़हब को लेकर विवादों-संघर्षों के तूफ़ान उठा करते हैं|इस प्रकार की सामजिक संस्कृति वैषम्य-जन्य कटुता की गहरी अनुभूति मेरे अंत:करण को आलोड़ित करती रहती है|लगता है कि यदि इसी प्रकार भाषाई ,जातीय व साम्प्रदायिक विद्रूपता के दंगल चलते रहेंगे तो,बकौल शायर
जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब,न तुलसीदास होगा |
          आज की भ्रष्ट स्थिति में जो प्रकाश देने के लिए हैं,वही भ्रांतियाँ फैला रहे हैं –‘धुन्ध की गीता शिकायत कैसी ?-दिन दिवाकर ने बेच खाया है|
         काश ! राजनीति का दृष्टिहीन नेतृत्व –‘हांकना बंद करे देश को अंधे महावत की तरह |
          सियासी जगत में विषमता के फ़साद तो एक हद तक बर्दाश्त किये भी जा सकते हैं परन्तु ,भाषा-साहित्य जगत में खेंमेबाज़ी नाक़ाबिले बर्दाश्त है|यहाँ तो समरसता के रंग ही छविवंत होते हैं| ये भाषा के झगड़े शब्द-शक्ति के नासमझ लोग बढ़ा रहे हैं |वर्ना ,
शब्द फिर से सही अर्थ देने लगें
यदि बदल जाएँ ये भ्रष्ट वैयाकरण |
          मुझे डर है कि इस नापाकतर दौरे सियासी में- बिगड़ जाये न खुद मेरा मिज़ाजे शेरोफन साकी|
    लय एक सार्वभौम तत्व है |अतएव वांछनीय है विभिन्न साहित्यों की तद्रूपता के साथ-साथ विश्व-समाज के जातीय-साम्प्रदायिक व धार्मिक वैविध्य में भी एक लयात्मक समरसता के रंग खिल उठें बस इसी भावना के साथ- जगन्नाथ त्रिपाठी